Wednesday, June 29, 2016

पति की फैमिली से कैसे करें एडजस्‍ट

How to adjust and stay positive in matrimonial home

हमारे भारतीय समाज में विवाह केवल पति-पत्‍नी के बीच का विषय नहीं है। इसमें दोनों के परिवार, रिश्‍तेदारऔर जान-पहचान वालों के बीच भी एक नये रिश्‍ते की शुरुआत होती है और विवाह-बंधन में बंधने के बाद जिम्‍मेदारियां केवल जीवनसाथी के प्रति ही नहीं होतीं इसमें वे सभी शामिल होते हैं जो किसी भी रूप से जीवनसाथी से जुड़े हैं खासकर परिवार के बुजुर्ग सदस्‍य। हमारा पारिवारिक ढांचा अभी भी बहुत हद तक पारंपरिक है संयुक्‍त परिवार परंपरा खत्‍म होते जाने के बावजूद अभी भी घर में नववधू से ये आशा की जाती है कि वह एक पारंपरिक बहू और आदर्श बहू की तरह परिवार में शामिल हो, जितना संभव हो घर के सदस्‍यों की देखभाल करे और जहां बहू कोई नौकरी या रोजगार नहीं कर रही है वहां उससे पारिवारिक जिम्‍मेदारियों का ज्‍यादा ख्‍याल रखने की अपेक्षा की जाती है जो कि स्‍वाभाविक भी है। शादी के बाद बदले हुए माहौल और परिवार के बड़ों के साथ सामंजस्‍य बिठाने में महिलाएं अक्‍सर असहज महसूस करती हैं खासतौर से व्‍यक्तिगत स्‍वतंत्रता और उन्‍मुक्‍तता के इस दौर में और जहां पर जरूरत है थोड़े से धैर्य के साथ तालमेल कायम करने की कोशिशों की वहां गलतफहमियां बढ़ती चली जाती हैं। 



एक कहानी कुछ दिन पहले इसी विषय पर पढ़ने को मिली कि किस तरह के आचरण और नजरिये को साथ रखकर नये परिवार में रहने की शुरूआत की जानी चाहिए और यदि किसी कारण से कड़वाहट ने हमारे मन में जगह बना ली है तो उसे दूर करने की शुरूआत आज से ही कर देनी चाहिए --

एक लड़की की नयी-नयी शादी हुई और वो अपनी ससुराल में जाकर रहने लगी। ससुराल में केवल पति और उसकी बूढ़ी मां थे। शुरू-शुरू में तो बहू बनकर घर में आयी लड़की अपनी सास के सभी आदेशों का  पालन करती पर कुछ महीने बीत जाने के बाद उसे सास की टोका-टाकी बुरी लगने लगी और दोनों में खटपट शुरू हो गई। 

वह अपने पति से रोज शिकायतें करती और उधर सास उसके बुरे व्‍यवहार का ताना देती। जैसा कि अक्‍सर होता है पति की समझ में नहीं आता था कि वो किसका पक्ष ले और किसे समझााये। 

एक बार बहू गुस्‍से में अपने मायके आ गई और अपने पिता से बोली कि मैं अपनी सास को जिंदा नहीं देख सकती। उसके पिताजी वैद्य थे, उसने कहा किआप मुझे सास के भोजन में मिलाने को जहर दे दीजिए। 

उसके पिताजी ने उसे कुछ पुडि़या बनाकर दीें  और कहा कि इनमें से एक को रोज खाने में डालकर अपनी सास को दे देना। ये धीमा जहर है कुछ महीनों बाद इस जहर के असर से उसकी मौत हो जाएगी पर तुम्‍हें एक काम करना होगा जब भी सास तुमसे कुछ कहे तो तुम्‍हें चुप रहना होगा और उससे अच्‍छा व्‍यवहार करना होगा जब तक उसकी मृत्‍ुयु ना हो जाए जिससे किसी को तुम पर शक ना हो। 

बहू खुशी-खुशी होकर अपने ससुराल लौटी और उसने उसी दिन से उस जहर को सास को खाने के साथ देना शुरू कर दिया। अब वो सास के मनपसंद व्‍यंजन बनाती और उसमें जहर मिलाकर उसे खिलाती, उसकी सेवा करती और उसके साथ अच्‍छे से पेश आती साथ ही साथ मन ही मन इस बात को लेकर खुश रहती कि कुछ ही दिनों में इस सासू मां से छुटकारा मिलने वाला है। 

कुछ ही महीनों में उसकी सास के व्‍यवहार में बहुत बदलाव आ गया। वो ना तो अपनी बहू से कुछ कहती ना किसी से उसकी शिकायत करती। उल्‍टा जो मिलता उससे बहू के व्‍यवहार की तारीफ करती । घर का माहौल भी पहले से बहुत सकारात्‍मक हो गया। उसकी अपनी सास के प्रति कड़वाहट खतम हो गई और उसे लगने लगा कि उसके कामों की तारीफ करने वाला भी कोई घर में है।

तब एक दिन उसे बहुत चिंता हुई और वो अपने पिता के पास जाकर बोली कि मैं अपनी सास को नहीं मारना चाहती। आप तो वैद्य हैं आपने जो जहर मुझे दिया उसके असर को खत्‍म करने और सास की जान बचाने को कोई औषधि दीजिए।

तब उसके पिताजी ने कहा कि तुम्‍हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, मैंने तुम्‍हें कोई जहर दिया ही नहीं था। मैंने तो बस हाजमा ठीक रखने की दवा दी थी। जहर तुम्‍हारे नजरिये में भरा था जो तुम अपनी सास को मारने चली थीं। उसे बदलने की जरूरत थी और आज उसका परिणाम तुम देख रही हो। अब जाओ और खुशी-खुशी अपना जीवन बिताओ। 

image credit : theknot.com

Thursday, June 23, 2016

कोर्ट के हस्‍तक्षेप से एक पारिवारिक विवाद का सुखद अंत

वैवाहिक कानूनों से संबंधित कम ही मामले होते हैं जिनमें मुकदमेबाजी के बावजूद उनका अंत सुखद रुप में होता है। झारखण्‍ड में एक ऐसा वाकया हुआ जिससे बहुत सारे लोगों को सीख मिल सकती है कि कैसे छोटी छोटी बातों से पैदा होने वाले झगड़ों को मध्‍यस्‍थता से शांतिपूर्वक निपटाया जा सकता है और समाज में उठने वाले ऐसे ही वाकयों से निपटने में एक स्‍वयंसेवी के तौर पर किस प्रकार मदद की जा सकती है।



बबन ने अपनी पत्‍नी प्रियंका के विरूद्ध दांपत्‍य अधिकारों की पुनर्स्‍थापना (Restitution of Conjugal Rights under section 9 HMA) के लिए कोर्ट में एक याचिका दायर कर रखी थी जिसमे उसका कहना था कि उसकी पत्‍नी बिना किसी कारण से सन 2010 से उससे अलग रह रही है। प्रियंका ने अपने अलग रहने का कारण भी न्‍यायालय को बताया कि उसके पति और उसके ससुराल के लोग उसे अपनी पढ़ाई जारी रखने की अनुमति नहीं दे रहे। जबकि विवाह के वक्‍त वे पढ़ाई के लिए सहमत थे। परिवार न्‍यायालय ने याचिका स्‍वीकार करके उसे पति के साथ रहने का आ‍देश पारित कर दिया जिसके खिलाफ प्रियंका ने झारखंड हाईकोर्ट में  अपील पेश की। चीफ जस्‍टिस वीरेंदर सिंह और जस्टिस चंद्रशेखर ने इस कपल को कोर्ट में उपस्थित रहने का आदेश दिया और उन्‍हें साथ रहने के लिए समझाया और छह हफ्ते बाद अगली सुनवाई के लिए मामला नियत किया। 

छह हफ्ते बाद जब दोनों कोर्ट के सामने उपस्थित हुए तो उन्‍होंने बताया कि वे खुशी से एक दूसरे के साथ रह रहे हैं और जो भी गलतफहमियां उनके बीच थीं, उनको भी दूर कर लिया है। साथ ही उन्‍होंने न्‍यायालय से निवेदन किया कि वे झारखंड राज्‍य विधिक सेवा प्राधिकरण के तहत पैरा लीगल वॉलंटियर्स/मध्‍यस्‍थ/सुलहकर्ता के रूप में काम करना चाहते हैं। उनके निवेदन पर न्‍यायालय ने जिला विधिक सेवा प्राधिकरण ( District Legal Services Authority DLSA ) धनबाद को निर्देश दिया कि दोनों को प्राधिकरण के पैनल में Para Legal Volunteers के तौर पर काम करने के लिए शामिल किया जाए। न्‍यायपीठ ने अपने फैसले में कहा कि Matrimonial Disputes के  मामलों में ये पति-पत्‍नी काउंसलर की भूमिका ज्‍यादा प्रभावी तरीके से निभा सकते हैं जाे कि व्‍यापक रूप से समाज के हित में होगा एवं हमारा यह भी मत है कि Jharkhand State Legal Service Authority को इन दोनों को इस सेवा को देने का अनुरोध करने के लिए सम्‍मानित भी करना चाहिए। साथ ही यह भी निर्देश दिया गया कि राज्‍य प्राधिकरण द्वारा इस जोड़े को एक स्‍मृतिचिन्‍ह और साथ ही घरेलू उपयोग की किसी वस्‍तु को गिफ्ट के रूप में दिया जाए। 

इस मामले में माननीय उच्‍च न्‍यायालय के न्‍यायमूर्तिगण की भूमिका बहुत ही सराहनीय है जिन्‍होंने ना केवल इन पति-पत्‍नी को इस प्रकार की समझाइश दी कि एक छोटी सी बात से पैदा हुई मुकदमेबाजी खत्‍म हुई और दोनों ने ना केवल अपने स्‍वयं के रिश्‍ते में आई कड़वाहट को दूर किया बल्कि समाज में औरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करने को अपनी सेवाएं देने का आग्रह न्‍यायालय से किया। न्‍यायाधीशगण ने इन दोनों को इस जिम्‍मेदारी के काबिल मानकर ना केवल उनका आग्रह स्‍वीकार किया बल्कि उन्‍हें सम्‍मानित करने का भी आदेश दिया। इस तरह से मामले का सकारात्‍मक रूप से पटाक्षेप होना एक उदाहरण है ना केवल विवाद में फंसे पक्षकारों के लिए बल्कि निचली अदालतों के जज और एडवोकेट्स के लिए भी कि किस तरह से उन्‍हें ऐसे मामलों में एक प्रभावी भूमिका निभानी चाहिए। 

image source : jhr.nic.in

Tuesday, June 21, 2016

हिन्‍दू विधि के अन्‍तर्गत आर्य समाज विवाह की कानूनी मान्‍यता और प्रक्रिया

Legal Validity and Procedure of Arya Samaj Temple Marriage under Hindu Law

आर्य समाज विवाह प्रेमी जोड़ों या परिवारजनों की इच्‍छा के खिलाफ जाकर लव मैरिज करने वालों के बीच लंबे समाय से लोकप्रिय रहा है। बहुत से लोग जो सादगीपूर्वक बिना ताम-झाम के शादी करना चाहते हैं चाहे वो अरेंज मैरिज हो या प्रेम विवाह वे आर्य समाज पद्धति को अपना रहे हैं। आर्य समाज विवाह कानूनी रूप से वैध माना जाता है और एक बार विवाह होने के पश्‍चात वर-वधू के पति-पत्‍नी के अधिकार प्राप्‍त हो जाते हैं। अंतरजातीय विवाह करने वालों के लिये भी ये एक अच्‍छा तरीका है क्‍योंकि अक्‍सर रूढि़वादी हिंदू परिवारों में अक्‍सर वर या वधू का दूसरी जाति का होना विरोध का कारण बनता है और उत्‍तर भारत में यह समस्‍या ज्‍यादा विकराल है हालांकि अब ट्रेंड कुछ बदल भी रहा है। वे लोग जो हिन्‍दू हैं और परिवारजनों के विरोध के कारण सार्वजनिक रूप से शादी नहीं कर सकते या उनको कोई खतरा है उनके लिए यह विवाह-पद्धति एक अच्‍छा विकल्‍प है। इस विवाह के लिए शर्तें वहीं हैं जो एक हिन्‍दू विवाह के लिए आवश्‍यक हैं। 



हिन्‍दू मैरिज एक्‍ट की धारा 5 में विवाह के लिए कुछ शर्तें दी गई हैं जिन्‍हें पूरा करने पर ही एक विवाह Valid या Legal माना जाता है। जिनमें लड़के का 21 वर्ष और लड़की का 18 वर्ष की आयु का होना आवश्‍यक है, इसके अलावा अन्‍य शर्तें जो कि इस अधिनियम में दी गई हैं उन्‍हें पूरा करना आवश्‍यक है।  आर्य समाज पद्धति से शादी करने वालों को ये शर्तें पूरा करना आवश्‍यक है साथ ही इसे वैध बनाने के लिए जिन कर्मकाण्‍डों अर्थात Rituals की जरूरत है वे भी एक विवाह में की जानी आवश्‍यक हैं। आर्य समाज उपरोक्‍त एक्‍ट के सभी मापदण्‍डों के अनुसार ही शादी संपन्‍न करवाता है इसीलिए इसे एक Valid Hindu Marriage माना जाता है और Arya Marriage Validation Act 1937 की धारा 19 भी इसे वैधता प्रदान करती है। विवाह सम्‍पन्‍न होने पर आर्य समाज द्वारा विवाह का सर्टिफिकेट भी दिया जाता है। 

आर्य समाज मंदिर वालों की भी अपनी प्रक्रिया और नियम हैं जिनको पूरा करने पर ही वे किसी शादी समारोह को संपन्‍न करने की अनुमति देते हैं। आजकल इनके द्वारा जिन दस्‍तावेजों या डॉक्‍यूमेंट्स की शादी से पहले मांग की जाती है वो इस प्रकार हैं-

1 आयु का प्रमाणपत्र विवाह के इच्‍छुक पक्षकारों का जिससे ये तय किया जा सके कि लड़के ने 21 वर्ष और लड़की ने 18 वर्ष की उमर पूरी कर ली है। ये मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट, ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, आधार कार्ड, जन्‍म प्रमाण पत्र कुछ भी हो सकता है।

2- वर-वधू दोनों के द्वारा दिया गया एफिडेविट या शपथपत्र जिसमें उनकी आयु, उनका कोई जीवित पति या पत्‍नी ना होना और अन्‍य जानकारियां होंगी।

3- दो साक्षी जिनके पास पहचान पत्र होना आवश्‍यक है। 

4- शपथपत्र में यह भी जानकारी देना आवश्‍यक है कि दोनों पक्ष किसी सपिण्‍ड नातेदारी (Prohibited Degree of Relationship) के अंतर्गत नहीं आते ।

5- यदि वे तलाकशुदा हैं तो संबंधित डिक्री या ऑर्डर की कॉपी और यदि उनके जीवनसाथी की मृत्‍यु हो चुकी है तो डेथ सर्टिफिकेट

आर्य समाज मंदिर में इस प्रकार की गई शादियों का पूरा रिकॉर्ड भी रखा जाता है। ऐसा विवाह कानून की नजर में पूरी तरह मान्‍य है और यदि इसे चुनौ‍ती दी जाती है तो प्रमाणपत्र, साक्षियों और मंदिर के रिकॉर्ड से इसे आसानी से साबित किया जा सकता है।

image source: twominuteparenting.com

Sunday, June 19, 2016

क्या है जीवनसाथी द्वारा की गई ‘क्रूरता’ और आपके अधिकार



What is ‘Cruelty’ by Spouse in Indian Family Law and your rights

विवाह एक ऐसा विषय है जिससे संबंधित कानूनों और विवादों के निपटारे के लिए अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग विधियां बनाई गई हैं। इन्‍हें सामान्‍यतया पर्सनल लॉ भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए एक हिंदू जोड़ा यदि शादी करना चाहता है तो उसके लिए शर्तें हिन्‍दू विवाह अधिनियम में दी गई हैं और यदि वे अलग होना चाहते हैं अर्थात् तलाक लेना चाहते हैं तो उसके लिए क्‍या नियम और प्रक्रिया है उन सभी को इस अधिनियम में वर्णित किया गया है। उसी प्रकार पारसी, ईसाई और मुस्लिम धर्मों के लोगों के लिए प्रक्रिया उनके लिए बनाए गए कानूनों में दी गई है, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के लोगों को हिन्‍दू विधि में हिन्‍दू की परिभाषा के अंतर्गत ही रखा गया है। इन सब कानूनों में तलाक के जो आधार या Grounds for Divorce दिये गये हैं उन सबमें एक बात कॉमन है और वह है क्रूरता यानी क्रूरता को सभी धर्मों के Personal & Family Laws में विवाह-विच्‍छेद का एक आधार माना गया है। 



अब प्रश्‍न ये है कि क्रूरता की परिभाषा क्‍या है ? इनमें से किसी भी विधि में इसे परिभाषित नहीं किया गया है और चकित करने वाली बात ये है कि विवाह विघटन या डाइवोर्स के लिए दर्ज होने वाले मुकदमों में अधिकांश का आधार यही होता है। तब क्‍या कारण है कि हमारे कानून निर्माताओं ने इसे परिभाषित करने का प्रयास नहीं किया है। संभवतया ये एक ऐसा विषय है जहां न्‍यायाधीश को तय करना होता है कि संबंधित पक्षकार के साथ इस प्रकार का बर्ताव किया गया है या नहीं और क्रूरतापूर्ण व्‍यवहार के मापदंड भिन्‍न-भिन्‍न स्‍थान, समय, आर्थिक परिस्थितियों, व्‍यक्तियों और संस्‍कृतियों के आधार पर तय होते हैं। जरूरी नहीं कि एक मामले में किसी विशेष प्रकार के आचरण को क्रूरता माना जाए तो सभी मामलों में वह लागू हो। इसलिए इसकी कोई सामान्‍य परिभाषा नहीं दी जा सकती है। न्‍यायालयों ने कहा है कि क्रूरतापूर्ण आचरण इतने भिन्‍न और अनकों प्रकार के हो सकते हैं कि उन्‍हें परिभाषा की सीमा में बांधना संभव नहीं है फिर भी माननीय सुप्रीम कोर्ट और कई हाईकोर्ट्स ने इस शब्‍दावली या Term की व्‍याख्‍या की है। शोभारानी बनाम मधुकर रेड्डी के केस में सुप्रीम कोट ने कहा कि – क्रूरता का गठन करने वाले जिस आचरण की शिकायत पीडित द्वारा की गई है उसे गंभीर होना चाहिए और इसे ‘विवाहित जीवन के सामान्‍य रोने-धोने’ से अधिक होना चाहिए। न्‍यायालय का यह समाधान होना चाहिए कि किसी मानसिक क्‍लेश, उत्‍पीड़न या प्रभाव के बिना उनका साथ रहना असंभव है।


इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विवाह के किसी पक्षकार द्वारा किया गया  क्रूरतापूर्ण आचरण वह है जिससे दूसरे पक्षकार को शारीरिक या मानसिक क्षति पहुंचे या उसकी आशंका हो चाहे ऐसा व्‍यवहार जानबूझकर किया गया हो या नहीं।  क्रूरता भी दो प्रकार की होती है : शारीरिक और मानसिक । पहले जहां मुख्‍यतया शारीरिक हिंसा या प्रताड़ना को ही क्रूरता की श्रेणी में रखा जाता था वहीं अब सामाजिक-आर्थिक परिदृश्‍य बदलने से मानसिक क्रूरता के मामले भी बड़ी संख्‍या में सामने आ रहे हैं। क्रूरता को विवाहविच्‍छेद का एक आधार बनाए जाने का एक प्रमुख कारण है‍ कि दांपत्‍य जीवन में रह रहे व्‍यक्तियों के आत्‍मसम्‍मान और गरिमा से रहने के अधिकार की रक्षा करना। यदि उनका वैवाहिक जीवन इस स्थिति में है कि उनमें से एक दूसरे पक्षकार द्वारा किये जा रहे आचरण से व्‍यथित है और शारीरिक या मानसिक परेशानी में रह रहा है तो वह विवाह के विघटित किये जाने की अर्जी लेकर न्‍यायालय में जा सकता है। 

image source : nydivorcefirm.com

Wednesday, June 15, 2016

तलाक से पहले बच्चों के बारे में जरूर सोचें

Think about your children before heading for divorce

हाल ही में अखबार में एक खबर देखी कि एक हॉलीवुड के एक सेलेब्रिटी कपल ने अलगाव होने के बावजूद भी अलग होने के बजाय  एक ही घर में रहने का विकल्प इसलिए चुना कि उनके बच्चे पर इसका बुरा असर पड़ता. ऐसी परिस्थितियों में लोग जहाँ जल्दबाज़ी में कुछ गलत कदम उठा लेते हैं जो उनके लिये तो खराब होता ही है,  बच्चों को इससे कहीं ज्यादा बुरे परिणाम भुगतने पड़ते हैं और तलाक के बाद कस्टडी के नाम पर चल रही खींचतान में उसका बचपन पिसता रहता है।


हमारे यहां जहां एक तरफ संयुक्त परिवार की परंपरा धीरे धीरे खत्म होती जा रही है वहीं एकल ​परिवारों में भी पति पत्नी के रिश्तों की अनबन बच्चों पर मनोवैज्ञानिक रूप से बुरा असर डाल रही है। पति पत्नी का व्यस्त और कामकाजी होना और बच्चों के साथ कम समय बिता पाना उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए कतई अच्छा नहीं हैं साथ ही घर के बुजुर्गों का होना भी बच्चे के समुचित विकास के लिए जरूरी है। ऐसे परिवार जिनमें बच्चे को दूसरे सदस्यों का साथ और सहयोग नहीं मिलता वे भावनात्मक समस्याओं से जीवनभर जूझते हैं। अब अंंदाजा लगाएं कि यदि पति पत्नी किसी कारण से अलग होने का फैसला कर लें तब स्थिति कितनी विकट होगी। हालांकि कई बार स्थितियां ऐसी हो जाती हैं जहां अलग होने के अलावा कोई विकल्प बचता नहीं। पर फिर भी बहुत सारे मामलों में ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता है। यदि माता पिता ऐसा कर पाते हैं तो उनके बच्चे अपने जीवन में होने वाली निम्न समस्याओं से बचे रह सकते हैं—

*खुद को हमेशा असुरक्षित महसूस करना
*अकारण ही आक्रामक और जिद्दी होना
*छोटी छोटी बातों पर निर्णय ना ले पाना
*आसानी से किसी से सामंजस्य ना बिठा पाना
*अपनी अभिरूचियों का विकास ठीक से ना कर पाना
*उनके स्वयं के जीवन में जीवनसाथी के तालमेल ना बिठा पाना
*परिवार टूटने की दशा में समाज में भी खुद को अलग थलग महसूस करना
साथ ही और भी कई प्रकार की साइकोलॉजिकल डिसआॅर्डर से इन बच्चों को जूझना पड़ सकता है।

तो विवाह विच्छेद के बढ़ते मामले किस तरह हमारे बच्चों के जीवन की राह को मुश्किल बना रहे हैं। साथ ही मां बाप में बच्चों के संरक्षण को लेकर भी कानूनी लड़ाई चलती है। जिसमें बच्चे के अच्छे भविष्य को लेकर उनका अपना अपना नजरिया होता है पर बच्चे के हित के लिए दोनों अलग अलग नहीं सा​थ मिलकर सोचे तो नतीजा पॉजिटिव हो सकता है।

वैसे अच्छी बात ये है कि हमारे विधि आयोग ने इस बात को ध्यान में रखकर सरकार को पिछले साल सौंपी अपनी रिपोर्ट में तलाक की स्थिति में बच्चों की Joint Custodyकी सिफारिश की है ताकि संयुक्त रूप से पति पत्नी दोनों को ही बच्चों की देखभाल करने का अधिकार मिल सकेऔर इसके लिए इससे जुड़े कानूनों Hindu Minority and Guardianship Act 1956 और Guardianship and Wards Act 1890 में बदलाव किये जाने की जरूरत पर जोर दिया है जिससे बच्चे की परवरिश पर कोई विपरीत प्रभाव ना पड़े।



खैर कानून हमारे बच्चों के बारे में सोचे उससे पहले हमें ही थोड़ा संयम रखकर सोचना चाहिए कि मतभेद होने के बावजूद बच्चों की भलाई के लिए ही सही हमारा साथ रहना उनके लिए कितना जरूरी है। अक्सर समय के गुजरने के साथ साथ मतभेद भी धुंधले पड़ जाते हैं और जल्दबाजी में लिये गये निर्णय बाद में बेवकूफी भरे लगते हैं।

photo credit : jgllaw.com

Sunday, June 12, 2016

इंटरनेट और स्मार्टफोन की लत : समझदारी से बच सकती है आपकी मैरिज लाइफ

addiction of smartphone and social media : how to save your marriage life

अभी कुछ दिन पहले परिवार न्यायालय में एक लड़के से बातचीत हुई। उसका तलाक हो चुका था और उसकी उमर बाईस साल थी। उसकी साल भर पहले अपनी ही हमउम्र लड़की से शादी हुई थी। विवाद की मुख्य वजह उसके अनुसार लड़की की फोन से चिपके रहने की आदत थी। उनकी अरेंज मैरिज थी और बीवी हाउसवाइफ थी। पति के घर में समय बिताने के दौरान भी ना तो वह पति से बातें करती थी और ना ही उसमें कोई रुचि लेती थी। दोनों साथ घूमने भी जाएं तब भी वह पति से बात करने की बजाय अपने फोन में ही आंखें गढ़ाए रहती थी। ​हसबैंड उससे बात करने की कोशिश करता था या फोन यूज ना करने की बात कहता था तो दोनों के बीच झगड़े की नौबत आ जाती। बहरहाल सालभर में उसकी वाइफ की ओर से 498ए आईपीसी, घरेलू हिंसा, हिन्दू मैरिज एक्ट, मेन्टेनेन्स के मामले दर्ज कर देने के बाद मामला एकमुश्त भरण—पोषण की रकम देकर सहमति से तलाक पर खत्म हुआ। हालांकि विवाद की जड़ कुछ और थी और मुकदमेबाजी से पहले उस समस्या को एड्रेस किया जाना जरूरी था पर ना पीड़ित के परिवार वाले ना ही शुभचिंतक इतना सोच पाते हैं और ना ही कोई ऐसी परिस्थिति में उनको गाइड करने वाला होता है तब मुकदमेबाजी की शुरूआत होकर उसका अंत इस तरह होता है।


कई बार न्यूज में भी ऐसे मामले सुर्खियों में रहते हैं जहां पति या पत्नी में से किसी का व्यवहार सोशल मीडिया, मैसेजिंग, फेसबुक, व्हाट्स एप जैसी आदतों की अति हो जाने और जीवनसाथी द्वारा रोक टोक करने पर हिंसक हो उठता है।

हालांकि हममें से ज्यादातर लोग आज सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं चाहे फोन से या और किसी और तरीके से और जो भी एक्टिविटी हम इस पर करते हैं उसके बारे में प्राइवेसी भी चाहते है। पर मैरिड लाइफ में इस प्रकार की प्राईवेसी अक्सर पहले शक और बाद में विवाद का कारण बन जाती है।

आजकल व्यस्तता भरी जिंदगी और ज्यादातर मामलों में पति पत्नी दोनों के ही कामकाजी होने से पहले ही समय की कमी है और उस पर भी बचा खुचा समय इंटरनेट की भेंट चढ़ गया है। हालांकि इन कारणों से पैदा हुए विवाद इस प्रकार के होते हैं जो आसानी से निपटाए जा सकते हैं इसलिए पति—पत्नी को सही काउंसिलिंग दी जाने के प्रयास किये जाने चाहिए।

चलिए चर्चा करते हैं किस तरह से ये आदत हमारी शादीशुदा जिंदगी में एक रोड़ा बनकर उभरती है जिन पर थोड़ी सजगता से ध्यान दें तो हम खुद ही मिल—बैठकर इस समस्या से बचे रह सकते हैं—

सबसे पहले तो चाहे पति हो या पत्नी दोनों को ही यह समझना होगा कि शादी के बाद उनका दायित्व एक दूसरे के प्रति पहले है मतलब दोनों के लिए ये रिश्ता First Priority होना चाहिए ​और इसलिए अपनी प्रोफेशनल लाइफ के बाद खाली समय में एक दूसरे के लिए समय निकालना चाहिए

दूसरी बात ये है कि शादी से पहले के जीवन से हमें आगे बढ़कर सोचना चाहिए। मित्र चाहे पति के हों या पत्नी के उनको रियल लाइफ में तो हम शादी के बाद इतना समय नहीं दे पाते पर सोशल नेटवर्किंग के कारण उनसे चैटिंग आदि करने में बहुत सा समय खर्च कर देते हैं जबकि हमारा जीवनसाथी सोच रहा होता है कि हम फोन छोड़कर कब उससे बात करेंगे। ये उसकी खीज और गुस्से का कारण बनती है जबकि कारण हम होते हैं।

तीसरी बात पुराने समय में हमारे घर के सदस्य या आसपास के लोग हमारी हर गतिविधि या हर भावना को नोटिस करते थे। यदि हम उदास या किसी कारण से परेशान हैं तो उन्हें हमारा चेहरा देखकर महसूस होता था। भावनात्मक जुड़ाव होने के कारण हमें उनसे सपोर्ट मिलता था पर अभी के समय में देखने में आता है कि लोग आॅनलाइन गतिविधियों में इतने खोये रहते हैं कि उन्हें लाइफ पार्टनर तक के मन में क्या चल रहा है, उसे हमारी जरूरत तो नहीं ये सब सोचने का समय नहीं होता। पति भी अक्सर खाली समय में गेम्स खेलने के अलावा कुछ करते नहीं।

चौथी बात यदि हम इसे मनोरंजन या दूसरों से जुड़े रहने की गतिविधि के तौर पर ही लेते हैं तो भी यह बात ध्यान रखना चाहिए कि ये हमारे रिश्तों की कीमत पर ना हो और दिनभर में एक तय समय से अधिक हम इसे ना दें।

* कुछ बेहद जरूरी बातें  जिनको ध्यान में रखकर हम सोशल मीडिया,इंटरनेट के प्रयोग और अपने दांपत्य जीवन में एक संतुलन बना सकते हैं—

1— बेडरूम में इंटरनेट से दूर ही रहें खासकर सोने से पहले और सभी डिवाइसेज को दूर रख दें। केवल जरूरी फोन कॉल्स लेने के लिए ही उपयोग करें। इससे नींद भी ठीक नहीं आती और सेक्स संबंधों की भी बलि चढ़ जाती है।

2— किसी भी मैसेज या वॉट्सएप चैट का तुरंत उत्तर देने से बचें और जब जरूरी कामों से फ्री हों तब ही ऐसा करें।

3— दूसरों की प्रोफाइल्स में बेकार ताक—झांक से बचें। इससे हीनभावना, तुलना करने और जलन जैसी बुरी भावनाएं मन में आ जाती हैं जो पारिवारिक जीवन के लिए ठीक नहीं।

4— प्राईवेसी पर ज्यादा जोर भी पति—पत्नी के रिश्ते के लिए घातक है। कभी अपना मोबाइल फोन ना देना या हर समय और हर एप्लीकेशन को लॉक रखना। हालांकि पति—पत्नी के बीच स्पेस भी होना चाहिए पर ये आदतें तो शक ही बढ़ाती हैं ना कि एक हेल्दी रिलेशनशिप।

सबसे पहले तो जरूरत है इस समस्या पर ध्यान देने की क्योंकि हम ही नहीं समझेंगे कि हमारे बीच तनाव या झगड़े या दूरी जो भी कुछ हो उसकी असली वजह क्या है तो उसके निदान की दिशा में कैसे आगे बढ़ेंगे। दूसरे पति पत्नी में से कोई एक या दोनों ही इस आदत से ग्रस्त हैं और इस आदत को छोड़ नहीं पा रहे तो दोनों को ही किसी काउंसलर से मिलना चाहिए ना कि एक दूसरे पर गुस्सा करना चाहिए या दूसरों से इस बारे में ज्यादा चर्चा करना चाहिए चूंकि यह आदत कभी कभी बीमारी बन जाती है इसलिए हम अपने जीवनसाथी को कैसे इस बीमारी से निकालें इस पर सोचना चाहिए और यदि समस्या अत्यधिक गंभीर है और यदि ये एक डिसआॅर्डर के रूप में विकसित हो चुकी है तो किसी अच्छे साइकोलॉजिस्ट से भी सलाह ली जा सकती है। क्योंकि हमारे बड़े बुजुर्ग भी कहा करते थे कि बनाने में तो जिंदगी बीत जाती है और बिगड़ने में देर नहीं लगती।

photo credit- pintarest.com, womanshealthmag.com

Thursday, June 9, 2016

विवाह परामर्श की आवश्यकता

ये तो हम सब ही कहीं ना कहीं महसूस कर रहे हैं कि विवाह नामक संस्था हमारे यहां एक बड़े परिवर्तन के दौर से गुजर रही है और पति—पत्नी के रिश्ते कभी कभी इतनी नाजुक स्थिति में पहुंच जाते हैं जहां से उनको वापस पटरी पर लाना मुश्किल जान पड़ता है । हालांकि विवाद की जड़ में जाया जाए तो सभी नहीं पर अधिकांश मामलों में ये वजहें बहुत ही छोटी होती हैं और जैसे किसी छोटी बीमारी की स्थिति में उसके प्रति लापरवाही बरतने से वो लंबे समय में बड़ी बन जाती है और उसका इलाज भी मुश्किल हो जाता है वैसा ही हाल इन मामलों में पाया जाता है।


वकालत के पेशे में होने के कारण मेरा दिन—प्रतिदिन का अनुभव है कि बदलते सामाजिक—आर्थिक माहौल, एकल परिवार, अत्यधिक व्यस्तता और समय की कमी एवं बहुत सी छोटी छोटी बातें पति पत्नी के संबंधों को बेवजह अदालत के दरवाजे पर ला खड़ा कर देती हैं। अधिकांश मामलों में ऐसे विवादों की दिशा इस बात पर भी निर्भर करती है कि आसपास के लोग मामले में किस प्रकार से दखल दे रहे हैं अर्थात मामले के प्रति उनका सकारात्मक या नकारात्मक रुख मामले की दिशा तय करता है।

आजकल ये भी बहस का विषय है कि विवाह और दहेज कानून इस प्रकार के हैं कि उनका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग भी हो रहा है इसका दूसरा पक्ष यह भी है वास्तविक पीड़ितों की संख्या भी अच्छी खासी है। ऐसे में कानून से जुड़े लोगों की जिम्मेदारी भी बढ जाती है चाहे वह पुलिस हो या वकील अथवा न्यायाधीश। हमारा फैमिली कोर्ट एक्ट भी कहता है कि परिवार न्यायालय का यह कर्तव्य है कि यदि मामले की परिस्थितियों में ऐसा संभव है तो वह सबसे पहले पक्षकारों में समझौता कराने का प्रयास करे।

ऐसी परिस्थितियों में आवश्यकता है इस बात की कि पति अथवा पत्नी या दोनों ही एक साथ जिस व्यक्ति या फोरम के समक्ष अपनी पीड़ा जाहिर करते हैं वह चाहे कोई करीबी व्यक्ति हो अथवा कोई सामाजिक कार्यकर्ता हो, वकील हो या पुलिस अधिकारी और न्यायाधीश, उनको बहुत समझदारी से देखना होगा कि पीड़ित के हित को देखते हुए उसके वैवाहिक जीवन को बचाये रखने के लिए क्या कदम उठाने चाहिए साथ ही यदि कोई कानूनी कदम उठाया जाना जरूरी हो गया है तो वह क्या हो? क्योंकि अक्सर जल्दबाजी में या किसी की सलाह पर उठाये गये कानूनी कदमों के परिणाम बाद में भयानक होते हैं। इसलिए दोनों ही स्थितियों में चाहे मामला आपसी सुलह से निपट सकता हो अथवा कानूनी कदम उठाना जरूरी लग रहा हो, कदम उठाने से पहले इस क्षेत्र से संबंधित किसी अनुभवी व्यक्ति की सलाह को जरूर अमल में लायें ताकि अनजाने में हुई गलतियों को बेवजह ना भुगतना पड़े।

हमारे देश में अभी इस विषय से संबंधित विशेषज्ञों की बेहद कमी है और प्रत्येक मामले में केवल कानून ही स्थायी समाधान प्रदान नहीं कर सकता है। इसलिए विशेषज्ञ के लिए आवश्यक है कि वह इस समस्या के केवल कानूनी पहलू को ही ना समझे बल्कि उसे सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को भी समझे और उसके अनुरूप लोगों की मदद करे।

इस ब्लॉग का उददेश्य है कि इस प्रकार की समस्याओं पर जानकारी प्रदान करने और उसके कानूनी पहलुओं से लोगों को अवगत कराने और यदि आवश्यक हो तो उनकी काउंसलिंग करने के लिए एक आॅनलाइन मंच उपलब्ध कराना। साथ ही विवाह पूर्व काउंसलिंग या प्री मैरिटल काउंसिलिंग भी एक ऐसा विषय है जिसके बारे में हमारे समाज में जागरूकता की जरूरत है। विवाह से पहले मनोवैज्ञानिक रूप से इसके लिए खुद को तैयार करने और मैरिज लाइफ को खुशहाल और आनंदपूर्वक जीने के लिए आवश्यक रवैये को अपनाने के लिये यह महत्वपूर्ण है। यह ब्लॉग प्रयास है इन विषयों पर हिन्दी में अधिक से अधिक जानकारी उपलब्ध कराना और लोगों की निजी शादीशुदा जिंदगी की समस्याओं का समाधान करने में मार्गदर्शन करना।

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